Thursday, July 2, 2009

क्या संसद में 33 % आरक्षण से नियति बदल जायेगी उन महिलाओं की जिन्हें दरकार है अभी शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की ?






केन्द्र-सरकार ने 100 दिवसों के अन्दर संसद में महिलाओं के लिए 33% सीटें सुनिश्चित करने के लिए महिला आरक्षण-विधेयक लाने की घोषणा की है महिला-आरक्षण की वकालत करने से पहले हमें कुछ प्रश्नों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए सबसे पहले हमें विचार करना चाहिए कि आखिरकार वह बाधा कौन-सी है जो देश के आर्थिक-विकास , राजनीति , सामाजिक-संरचना , सेवा और सुरक्षा के मामले में महिलाओं को सहभागी होने से रोकती है ?चिंतन का दूसरा बिन्दु होना चाहिए कि संसद और विधान-मण्डलों में महिलाओं के लिए 33% स्थान सुरक्षित करके महिलाओं का कौनसा हित साधना चाहते हैं हमारे ये राजनैतिक-दल ? राजनैतिक-दलों को किसने रोका है कि वे संसद और विधान-मण्डलों के चुनाव में 33%महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाकर सहज-स्वाभाविक महिला-नेतृत्व को आगे लाएँ ?यदि राजनैतिक -दल ऐसा करते हैं तो आरक्षित महिला-नेतृत्व की आवश्यकता ही महसूस नहीं होगी ।वैसे भी हिन्दुस्तान में भारतीय-नारी के अधिकार हजारों वर्षों से देश की धरोहर रहे हैं हमारे यहाँ महिलाओं के अधिकार अर्जित और आरक्षित नहीं बल्कि सहज , स्वाभाविक और सदा सुरक्षित रहे हैं ।मेरा मानना है कि ऐसा आरक्षण किस काम का जो देश के '' सर्वांगवत अर्द्धांग '' को जाति , वर्ग , मजहब और संप्रदाय में बाँट -तोड़कर सामाजिक टूटन पैदा करे और राजनैतिक जीवन को भी तोड़ दे ।आज जिन रास्तों से महिलाओं को संसद और विधान-मण्डलों में पहुंचाने की पहल की जा रही है उससे मुझे बहुत आश्चर्य होता है अगर संसद में वास्तव में एक-तिहाई आरक्षण महिलाओं के नाम कर दिया गया तो कुल मिलाकर हर संसद में हमें 181 ऐसी देवियों की जरूरत पड़ेगी जो लोकसभा में विचार और कर्म के स्तर पर कोई साख बना सकें अचानक पिछडे , दलित , और दरिद्र समाज में से 181 ऐसी देवियाँ निकालकर जिनका इरादा देश का विकास , लोकतंत्र का विकास , और समाज का परिवर्तन हो , आप कहाँ से लाएँगे ? मेरी इस बात में जिनको जरा भी पुरुषोचित दंभ दिखता हो वो पंचायती राज के महिलाओं वाले आरक्षण की फजीहत देख लें ज्यादातर ग्राम से लेकर नगरीय-निकायों और जिला-पचायतों तक चुनी तो महिलायें गयीं है लेकिन कुछ सात्विक अपवादों को छोड़कर उनकी ओर से फैसले उनके कुटुम्ब के पुरूष ही करते हैं हो सकता है आप कहें कि करोड़ों की आबादी में पौने दो सैंकड़ा काबिल -महिलायें खोजकर लाना असंभव नहीं है तो मैं यह पूछना चाहता हूँ कि अगर ऐसी महिलायें हैं और वाकई में काबिल हैं तो उन्हें राजनीति के आँगन में आने से किसने रोका है ? महिला-आरक्षण की वकालत करने वालों से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इन 181 देवियों को चुनकर संसद तक पहुंचाने के लिए कितने लोगों की जरूरत पड़ेगी और क्या इस पुण्य-कार्य में पुरुषों का प्रवेश वर्जित होगा ?सरोजिनी नायडू ,इंदिरा-गांधी , अरुणा आसफ अली , लक्ष्मी सहगल , मायावती , उमा-भारती , वसुंधरा-राजे सिंधिया , शीला -दीक्षित , ममता-बनर्जी , जयललिता , वर्तमान राष्ट्रप्रमुख प्रतिभा पाटिल आदि महिलाओं को अलग-अलग तत्वों और कारणों ने देश के सर्वोच्च निर्वाचित सदनों और संवैधानिक पदों तक पहुंचाया , लेकिन उनमें से एक भी तत्व और कारण आरक्षण नहीं था आज प्रतिभा पाटिल देश की राष्ट्र-प्रमुख हैं , मीरा -कुमार देश की पहली महिला -स्पीकर चुनी गयीं हैं , सोनिया गांधी सत्तारूढ़ कांग्रेस की मालकिन हैं , मायावती उत्तरप्रदेश की महिला मुख्यमंत्री हैं , शीला-दीक्षित देश की राजधानी दिल्ली में मुख्यमंत्री पद पर पिछले 10 वर्षों से सत्ता पर काबिज हैं आज देश की 5 राजनैतिक पार्टियों की अध्यक्ष महिला हैं इंदिरा गांधी ने वर्षों तक देश में प्रधानमंत्री के रूप में राज किया , इसके बावजूद भी अगर आज संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण माँगना पड़ रहा है तो हमें यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि महिलाओं के संसद और विधान-मण्डलों तक पहुँच जाने भर से महिलाओं के हालात बहुत सुधर नही जाने वाले इसके लिए समाज की शक्ल ,उसका चेहरा और उसकी प्राथमिकताएं पहले बदलनी होंगी ।उपकार और उपहार के बदले मिली शक्ति से आप कब तक बराबरी और प्रतियोगिता का रास्ता निकालेंगे ?इस तर्क में कोई दम नहीं रखा कि अगर महिलायें राजनैतिक शक्ति पाएँगी तो बाकी महिलाओं की हालत और देश की हालत भी सुधर जायेगी ! अमेरिका और फ्रांस में तो आज तक कोई महिला राष्ट्र-प्रमुख नहीं चुनी गयी ,परन्तु वहाँ महिलाओं को बराबरी के जो अधिकार मिले हुए हैं उनकी कसम तो हमारे यहाँ की आंदोलनकारी महिलायें भी खाती हैं और उधर दुनिया की पहली महिला -प्रधानमंत्री सिरीमावो भंडारनायके श्रीलंका में चुनी गयीं थीं और उनकी बेटी चन्द्रिका भी वहाँ की राष्ट्र-प्रमुख रह चुकी हैं ,लेकिन वहाँ महिलायें बराबरी में सबसे ज्यादा दूर हैं ।मैं यह पूछना चाहता हूँ महिला आरक्षण की वकालत करने वालों से कि अभी लोकसभा या राज्यसभा में जो नारी-रत्न विद्यमान हैं उनका संसदीय योगदान क्या है ?इनमें से कुछ सात्विक अपवादों को छोड़कर ऐसे नाम कम ही सुनाई पड़ते हैं , जिन्होंने समाज और देश की तो छोडिये जिस महिला -वर्ग का प्रतिनिधित्व ये करतीं हैं , उनके लिए कुछ ख़ास इन्होंने किया हो ?मेरी समझ में तो यह नहीं आता कि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के लिए 33%सीटें आरक्षित कर देने से क्या वे सभी महिलायें संतुष्ट हो जायेंगी जिन्हें दरकार है अभी शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की ?आज देश की 24 करोड़ महिलायें अपना नाम भी नहीं लिख पाती हैं हर आधा घंटे में एक महिला के उमंगों से भरे जीवन को बलात्कारी के क्रूर पंजे मसल डालते हैं और शेष रह जाता है तो सिर्फ़ अंधकारमय भविष्य और अट्टहास करता कठोर जीवन ऐसे में ये दलीलें कि महिला -आरक्षण से महिलाओं के हालात बदल जायेंगे गले नहीं उतरतीं ।भारत की नारी आज अपमान और जिल्लत की जिन्दगी जीने को क्यों मजबूर हो रही है ? महिला-आरक्षण की राजनीति से हटकर आज इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है इसलिए मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि संसद और विधान-मंडलों में महिलाओं के लिए 33%सीटें आरक्षित होने की बजाय आरक्षित होनी चाहिए महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा

1 comment:

  1. वैसे आप की बातों से हम सहमत हैं. लेकिन ३३% ही है न. ५१ या ५२ हो तो चिंता करनी पड़ेगी. टेंशन नहीं लेने का. देश को आगे बढ़ने दो.

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