Friday, June 26, 2009

जन्म जहाँ पर हमने पाया , अन्न जहाँ का हमने खाया - उस मातृभूमि की वन्दना पर ऐतराज क्यों ?


वंदे -मातरम् : शस्य - श्यामला धरा की वन्दना में कैसी फिरकापरस्ती ?

बीबीसी लन्दन ने 2006 में दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों की श्रेणी में 'वंदे-मातरम्' गीत को द्वितीय स्थान पर शुमार किया। यह वही गीत है जिस गीत को गाकर भारत के स्वाधीनता-आन्दोलन में हजारों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, लाखों लोगों ने जेलों की यातनाएं सहीं।इस गीत ने लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया।
यह 'वंदे-मातरम्' गीत की प्रेरणा का ही प्रतिफल था कि 1911 में अंग्रेजी हुकूमत को भारतीय जनमानस के आगे नतमस्तक होकर अपने 'बंग-भंग' के आदेश को वापस लेना पड़ा।आजादी की लड़ाई में देशवासियों को आजादी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने की प्रेरणा देने वाला यह 'वंदे-मातरम्' गीत बंकिमचंद्र-चट्टोपाध्याय द्बारा लिखा गया। 1835 में लॉर्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति भारत में लागू की गयी थी। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा का उद्देश्य भारत में अधिक से अधिक क्लर्क पैदा करना था और वाकई में इस शिक्षा पद्धति ने आगे चलकर शिक्षित लोगों की ऐसी जमात पैदा की जो शिक्षा का उद्देश्य मात्र नौकरी पाना ही समझने लगे। परन्तु इस शिक्षा-पद्धति के प्रारम्भ में मैकाले अपने इस उद्देश्य में कुछ हद तक सफल नही हो पाया था, क्योंकि उसकी इस शिक्षा पद्धति से भारत का जो पहला स्नातक बना,उसका नाम था-बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय । स्नातक होने के बाद उनको डिप्टी-कलेक्टर का पद दे दिया गया, लेकिन वे समझ गए कि अंग्रेजों ने उनसे क्या कराने के लिए उन्हें डिप्टी- कलेक्टर बनाया है। उन्होंने नौकरी को ठोकर मार दी और आजीवन राष्ट्रीयता के साथ जुड़े रहे-'वंदे-मातरम्' गीत उन्हीं की महान देन है।
से ६२ साल पहले ,देश की आजादी के पूर्व हमारे तीन मानबिंदु हुआ करते थे -राष्ट्रगीत ,राष्ट्रभाषा और राष्ट्रध्वज ।परन्तु आजादी के इन ६२ सालों में ये तीनों मानबिंदु एक विशेष सोच के तत्वों द्बारा विवाद के विषय बना दिए गए । आजादी के बाद जहाँ राष्ट्र की जय-चेतना का गान 'वंदे-मातरम' राष्ट्रगान होना चाहिए था ,उसकी जगह किंग एडवर्ड के सम्मान में रविंद्रनाथ टैगोर द्वारा रचे गए 'जन-गण-मन' को राष्ट्रगान बना दिया गया। आज समझौता बतौर 'वंदे-मातरम्' को राष्ट्रगीत की हैसियत प्राप्त है।
'वंदे-मातरम्' गीत में भारत की शस्य-श्यामला धरा की वंदना ही तो की गयी है, इसमें ग़लत क्या है? जिस भूभाग पर मनुष्य का जन्म होता है उस भूभाग से उसका आत्मीय लगाव होता है। इस लगाव को कोई भी मजहब नहीं नकार सकता। हसीन चांदनी, रोशन रात, नरम फूलों,गुंजन, पेड़ों आदि का जिक्र करने वाले इस खूबसूरत गीत में एक विशेष सोच के लोगों को फिरकापरस्ती क्यों नजर आती है ? क्यों मुसलमान 'वंदे-मातरम्' गीत पर ऐतराज करते हैं ?क्या वतन से प्यार करना, उस पर निसार होना, उसके लिए कुर्बानी देना एक मुसलमान के लिए धर्म का हिस्सा नहीं है ? मातृभूमि से मोहब्बत करना, उसका गुणगान करना, और उसकी बेहतरी के लिए काम करना कतई गैर-मजहबी नहीं हो सकता।
मातृभूमि के प्रति लगाव को मनुष्य अपने व्यवहार, वाणी, और कर्म से समय-समय पर अभिव्यक्त करता है । पैगम्बरे-इस्लाम को जब विरोधियों की अति के कारण अपना वतन मक्का छोड़ना पड़ा था ,उस समय सर-ज़मीने मक्का के लिए जो ज़ज्बात उनके दिल में उमड़े थे वो सर्वविदित हैं। हजरत मोहम्मद साहब बार-बार पीछे मुड़कर देखते ,उनकी आँखें नम थीं। अपने वतन से दूर होने की उन्हें पीड़ा थी।
मातृभूमि के प्रति इस लगाव को इक़बाल ने अपनी नज्म में कुछ यूँ व्यक्त किया है-
''सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा ।
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्ताँ हमारा । ''
-जिस तरह इक़बाल ने सर-ज़मीने हिन्दोस्ताँ को सारे जहाँ से अच्छा बताते हुए अपनी मातृभूमि की श्रेष्ठता को सिद्ध किया है, उसी तरह 'वंदे-मातरम्' गीत में मातृभूमि की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए समर्पण-भाव को अभिव्यक्त किया गया है।
सारी दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ वतन को माँ के रूप में देखा गया है। दूसरे मुल्कों ने वतन को पिता के रूप में देखा है । जैसे रसिया के लोगों ने अपने देश को फादर रसिया कहा । भारत को माँ मानने के पीछे सांस्कृतिक व ऐतिहासिक कारण हैं। हमारे देश में हर स्त्री की पहचान उसके पुत्र से होती है । किसी स्त्री का नाम न लेते हुए उसके पुत्र के नाम से उसे पुकारा जाता है। हमारे देश का नाम भरत के नाम पर है। इस द्रष्टिकोण से हम कह सकतें हैं की भरत की माँ अर्थात -भारत माँ । इसलिए हमने अपनी जन्मभूमि को माँ माना है। क्योंकि माँ ही वो शै है जो तकलीफें उठाकर भी अपनी संतान को फलता-फूलता देखना चाहती है। भारत हमारी मातृभूमि है,इसके आगोश में हम पलते हैं ,आगे बढ़ते हैं। अपने आँचल के साए में ये माँ हमें सदा रखती है। इसके प्रति सम्मान रखना ,इसकी अजमत को मानना और इसका गुणगान करना -हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए ।
'वंदे-मातरम् ' के विरोध में उठने वाले तमाम स्वर ह्रदय को विक्षोभ से भर देते हैं और तब स्मरण आती हैं हमें युवा-कवि विनीत चौहान की पंक्तियाँ ,जिनमें वो कहते हैं - ''जिसके गायन से माता की परतंत्र-बेडियाँ टूट गयीं ,
जिसकी स्वर-लहरी सुनने को सब स्वर्ग-सीढियां छूट गयीं ,
कुछ मक्कारों को वही गीत तिल-भर भी रास नही आया ,
गद्दारों को लगता शायद माता का दूध नही भाया ,
जो गीत सदा आजादी की दुल्हन की जय-जयकार रहा,
जो फांसी के फंदे चढ़ते वीरों की रण-हुंकार रहा,
तुम उसी गीत को गा न सके, सचमुच कितने हठ्भागी हो ,
जो चले गए देश छोड़ ,उनसे न शिकायत कभी हमें ,
पर तुमने इसे वतन कहा,इसलिए प्यार है अभी हमें ,
वरना इस घटना पर हम तुम्हें काँट-छाँट भी सकते थे ,
जो 'वंदे-मातरम्' गा न सकी वो जीभ काट भी सकते थे । ''
:-दिग्विजय सिंह सिकरवार





6 comments:

  1. 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा

    ये vahi iqbaal हैं जो bhaarat छोड़ कर paakistan चले गयी थे.............
    पर जो भी है............ में आपके lekh से pooraa sahmat हूँ............swaagat है apka

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  2. सुन्दर, सटीक, सामयिक. ऐसे ही लिखते रहें. सादर शुभकामनाएं..

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  3. जन्म जहॉं पर- हमने पाया।
    अन्न जहॉं का- हमने खाया।
    वस्त्र जहॉं के- हमने पहने।
    ज्ञान जहॉं से- हमने पाया।
    वह हैं प्यारा- देश हमारा।
    देश की रक्षा कौन करेगा- हम करेंगे, हम करेंगे।

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